संगीत के इस बे -ताज दीवाने से मेरी पहली मुलाक़ात १९७० के दशक के लगते ही हुई। मौक़ा था एक संक्षिप्त सा संगीत कार्यक्रम बुलंदशहर में मेरे एक सहपाठी रहे मित्र के आवास पर।
यहां मेरा एक आशियाना था जब भी मन वर्तमान की विसंगतियों से थक जाता था ,यहां भाग आता था बेंगलुरु। इस बार भी यही हुआ था मुंबई सेंट्रल से उद्यान एक्सप्रेस पकड़ी थी और येलाहंका स्टेशन पर उतर गया था ,हाथ में आपके वाल्किंग स्टिक हो तो मददगार मिल ही जाते हैं ।मेरा ट्रेवेलाइट एक फौजी ने पकड़ा दिया था। आँखें शेखर भाई को ढूंढ रही थीं हालांकि उस छोटे से स्टेशन पर उतरने वाले इक्का दुक्का ही होते हैं। गाड़ी रुकी तो वह सामने थे मैंने देखा एक लम्बी वेणी रख ली है शेखर जैमिनी ने (शेखर जी )ने वजन भी खासा बढ़ा हुआ दिखा था।
कब उन्होंने छोटी सी ट्रॉली कर ली पता ही नहीं चला। नज़रे उस छोटी सी गाड़ी को ढूंढ रही थीं जिसमें मंजुनाथ नगर की विजिट्स में मैं कई मर्तबा बैठ चुका था। उसके स्थान पर अब डीज़ल चालित चमचमाती एसयूवी थी धवल हिमालय सी। बाल अभी भी सब शेखर भाई के काले ही थे। बातों में पता चला तीन साल पहले किस्तों पर ली गई थी बस अब दो तीन किस्तें बकाया हैं।
विद्यारयण्य पुरा में चले आये थे अब शेखर। आखिरी मर्तबा २००७ -०८ यहां आया था चैन्नई मैसूर शताब्दी से मंजुनाथ नगर आवास पर तब ये संगीत की दीक्षा देते थे संगीतविद थे । अब २०१५ में शेखर जी एक शोध केंद्र चलाते हैं। असाध्य रोगों की चिकित्सा के लिए हर तरफ से निराश लोग यहां आने लगे थे ,आवास भी ढ़ाई मंज़िला था।भूतल पर जेमिनी असाध्य चिकित्सा शोध केंद्र ,प्रथम तल पर रिहाइश ,डाइनिंग ड्राइंग ,लाइब्रेरी रूम ,बैड रूम। डाइनिंग से सटी हवादार किचिन। ड्राइंग की दीवार के किनारे -किनारे किताबों को करीने से दर्शाती आलमारियां स्टील की। भरा पूरा रजनीश साहित्य जिनमें उपनिषद भी थे ,अलावा इसके आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रंथ ,साहित्य की अलग -अलग विधाओं की किताबें ,कामायनी से उर्वशी तक ,मधुशाला से साये में धूप तक।
रेंटल था अठ्ठाइस हज़ार मासिक ,मालिक मकान एनआरआई थे। शेखर जी को वैकल्पिक चिकित्सा के क्षेत्र में कर्नाटक सरकार से प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुआ है । शोध केंद्र में शशि थरूर एक चित्र में उन्हें पुरुस्कृत करते दिखाई दे रहें हैं।
ऊपर वाला एकल कमरा मेरा आशियाना था ,बाथ अटेच्ड था। एक बिजली की केतली ,नेस्ले मिल्कपाउडर का बड़ा पैक और ताजमहल डिप टी का बड़ा पैकिट। घर की तैयार की गई नमकीन (मखाना ,मुरमुरे )यहां हमेशा मिलती थी। किताबें मैं अपनी पसंदीदा नीचे ड्राइंग से उठा लाता था।सब कुछ तो था यहां मेरी ज़रूरियात का. ऊपर से हरदिल अज़ीज़ मीठी रोटी मेरी नन्ही सी अर्चना भाभी आवभगत को तहेदिल से हाज़िर नए -नए व्यंजन बनाती परोसती।
मन ठनका था -बे-तहाशा वजन बढ़ा बैठे हैं शेखर जी। इंडियन स्टाइल टॉयलेट आराम से यूज़ करते थे , उठ्ठक बैठक लगा के दिखाते थे। लेकिन सैर दैनिकी से नदारद थी। कहते थे देखो बिलकुल चुस्तदुरुस्त हो ,तुम बैठ के दिखाओ। उम्र में शेखरजी हमसे तकरीबन आठ साल छोटे हैं। लेकिन मेधा में हुनरबंदी में लाज़वाब। क्या काम नहीं आता आज इस शख्स को ?
पिछली बार आया था तब नाभिअमृतं चिकित्सा के लिए जाने जाते थे। प्रेक्टिस करते थे। अपने हाथ से तैयार की गई वाइन का खूब सेवन करवाया था ,चैन्नई लौटने लगा तो एक दो बोतल वाइन की मुझे भी थमा दीं।
साथ में घर में तैयार किये गए चूरन की अप्रतिम भेंट भी।चंदन के साबुन की टिकिया मैसूर सोप।
२००२ में मंजूनाथनगर में आया था साथ में मेरी लिविंग -इन पार्टनर थीं ।पत्नी तो १९८७ में ही नहीं रहीं थीं।
शेखर अर्चना ,अर्चना -शेखर दोनों प्रेम का सागर रहे हैं मेरे लिए यहां मुझे भरपूर सम्मान भी मिलता आया था तवज्जो भी। घर में हमारे लिए अपने इनर - सर्किल के एक ठौ स्टेज आर्टिस्ट को बुलाकर छोटी से संगीत संध्या रखी गई। मदिरा का भी अभिरुचि के मुताबिक़ ध्यान रखा गया। इस उल्लेखित बयान की गई अवधि में मेरी २००२ विजिट सक्रिय सेवाकाल से ताल्लुक रखती है बाद की दो सेवानिवृत्ति के बाद की हैं ।
उससे और पहले जब माननी सुदेश जी मेरी भार्या रूप में थीं शेखर भाई ने हरियाणा में मेरे सेवाकाल के दौरान आवधिक दस्तक दी कभी रोहतक कभी नारनौल ,लौटके फिर रोहतक ,इस दरमियान इनके शौक भी वैविध्य -पूर्ण बने रहे ,कभी वासांगुड़ी में मिष्ठान भंडार की देखरेख जहां इनके चचा श्री रहते थे। कभी संगीत की गुरुडम कभी ज्योतिष ,हस्तरेखा भी बाँची।
एक अदद बीबी इनकी हरकदम इनका साथ देती गईं। अस्सी का दशक था एक सुबह शेखर जी एक बेहद शालीन तहज़ीब -ए -आफ़ता नवयौवना के संग मेरे रोहतक आवास पर पहुंचे। शादी इसी शुभांगी संग कई बरस बाद हुई थी। बरात में मैं भी पहुंचा था सीधा रोहतक से सहारनपुर ,उन दिनों जनाब मानव भारती स्कूल में प्राचार्य थे। ये स्कूल एक ट्रस्ट द्वारा संचालित रहा है जिसके ट्रस्टियों में से एक मैं भी रहा हूँ। अस्सी के दशक का कोई शुरूआती साल रहा होगा।
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इन्होंने बांसुरी पर प्रस्तुति दी -छुप गया कोई रे दूर से पुकार के ...बाद इसके 'चंदा मामा दूर के पुए पकाए बूर के'.... । 'मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा।' गीत मैंने गाया था संगत शेखर जी ने की थी। अरे ये लड़का तो तबला भी उम्दा बजाता है। खुलकर कहरवा बजाया इसने ऐसी संगत तो मेरे सुख्खन मामा करते थे जो आकाशवाणी में म्युज़िक प्रोड्यूसर थे। मैं मन्त्र मुग्ध हुआ अपने बचपन में लौट आया। एक अभाव की पूर्ती हुई थी सुख्खन मामा को आज भी ढूंढता हूँ।
बेतहाशा हम एक दूसरे के सम्मोहन में बंधते चले। न उम्र का कोई फासला आड़े आया हम दोनों के न पद। उस दौर में शेखर भाई अलीगढ यूनिवर्सिटी में प्रीयूनिवर्सिटी आर्ट्स के छात्र थे।मैं व्याख्याता था राजकीय महाविद्यालय रोहतक में। जिला राजकीय महिला अस्पताल में इनकी माँ फार्मेसिस्ट (दवासाज ) थीं पापा भारतीय रेलवे में केटरिंग आफिसर । तीन बहनें तीनों की जुगल बंदी पहली ही भेंट में मोहित कर गई -'काहे तरसाये जियरा ....'लता- आशा- उषा तीनों एक ही परिवार में।वाह !क्या कहने हैं इस परिवार के।
बड़ी वीणा दीदी शीघ्र ब्याह दी गईं ,एमए कर चुकी थीं। उनसे छोटी रामपुर पोस्टग्रेजुएट कॉलिज में संगीत प्राध्यापक बन गईं। सबसे छोटी आभा सिंहल उदयपुर कुम्भा केंद्र में पहुँच गई। तबला में एमए किया। बाद शादी पीएचडी भी की। लेकिन उससे बहुत पहले तब जब आभा की शादी संपन्न हो रही थी पिता -श्री गोलोक सिधार गए ,आशीष उनका आभा और शङ्करं दोनों को मिल गया था।तुरता विवाह था यह अपने आप में अप्रतिम सुखकर सादा दहेज़ मुक्त।
शेखर बुलंदशहर छोड़ कर जा चुके थे। मम्मी भी बीकानेर पहुँच गईं। एक पूरा शहर मेरे लिए बे -मानी हो गया यूं मैं छुटियों में सपत्नीक आता रहा लेकिन अवकाश की अधिक अवधि दिल्ली सुसराल में ही व्यतीत होती।माँ से मिलने आता पिता का आशीष बराबर लेता रहा।
जहां भार्या को अच्छा लगे रहो इसी में सुख शन्ति मिलती है।
शेखर बीकानेर से पलायन कर चुके थे। संगीत की दुनिया में धमाके दार प्रवेश किया था । एक दिन अचानक अमरीका से उनकी काल आई -मैं बेंगलोर से ग़ज़लों का कार्यक्रम देने यहां आया हुआ हूँ पूरे ट्रिप की अवधि तीन माहीय थी। इस दौरान पांच केसेट का एक सेट मुझे डाक से प्राप्त हुआ।
'कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर ले लिए 'आपने दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों को स्वर दिया था। इस दौरान रामपुर से आपने बीए (म्युज़िक )की डिग्री पा ली थी। बीकानेर प्रवास के दौरान डॉ. मुरारी शर्मा से संगीत की दीक्षा भी ली थी। लेकिन विधिवत उन्होंने कहीं भी इस दरमियान रेगुलर छात्रों की तरह अध्ययन नहीं किया था सब कुछ प्राइवेट अपने जन्मजात हुनर के चलते।
स्वाध्याय की कोई सीमा नहीं होती शौक की भी नहीं ये शेखर जी ने बारहा सिद्ध किया। टेलेंट छुपाये नहीं छुपता। २०१५ में उन्होंने कहा था आई ऍम ए ब्लेस्ड परसन। माथा तब भी ठनका था इनका निजी आवास नहीं है एक मात्र पुत्र भी एनिमेशन कोर्स ज़रूर कर चुका है लेकिन अभी प्रशिक्षु ही है ये बेहद होनहार युवा । चंद महीने ही बीते थे -मीठी रोटी (नन्ही अर्चना भाभी ) का एसएमएस मिला शेखर जी नहीं रहे।
तब से बारहा लगा आदमी एक बार नहीं मरता है टुकड़ा -टुकड़ा उससे अलग -अलग समय पर अलग होता जाता है कभी शेखर बनके कभी कुछ और रूप में.
हम अकेले कहाँ हैं कितने लोगों का वास है हमारे अंदर ,मरता हमरे अतीत का एक हिस्सा भर है एक बार नहीं बार -बार।
कुछ दोस्त बनाये रहिये ,शेखर जी अब नहीं रहे।गूगल लिंक बकाया है :
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You sent July 2 at 8:50 PM
kabirakhadabazarmein.blogspot.com
Sat 7:14 AM
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शेखर जी -
कभी साथ लेकर आये -संगीत की स्वर लहरी मधुशाला पूरी की पूरी -
छोटे से जीवन में कितना याद करूँ पीलू हाला
आने के ही साथ जगत में कहलाया जाने वाला।
कभी जगमोहन जी के गीत -मुझे न सपनों से बहलावो .....इब्ने इंशा की लिखी ग़ज़लें ...एक दीवार पे चाँद टिका था ,मैं ये समझा तुम बैठे हो। उजले उजले फूल खिले थे ,जैसे तुम बातें करते हो।
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